April 8, 2013

दुकान...

लो खोल दी मैंने आज दिलासों की दुकान...

 गर लग जाए ठेस या भर आये मन,
सीने का भार जो करना हो कम
भाड़े पे देता हूँ बाहें बिन दाम.
लो खोल दी मैंने आज दिलासों की दुकान...  

फटने लगे गर आक्रोश की ज्वाला,
दिल खोलके चीखना चिल्लाना हो
ले जाओ मुफ्त में मेरे दो कान.
लो खोल दी मैंने आज दिलासों की दुकान...  

उमड़ जाये गर आँखों के सागर  
टीस, चुभन या बस उदासी से 
मिल जायेंगे यहाँ कन्धों के रुमाल.
लो खोल दी मैंने आज दिलासों की दुकान...  


भड़ास गर घर कर गयी हो दिल में  
आके कहो अपनी कहानी, 
बेबसी के निवारण के लिए 
आओ करो अपनी मनमानी. 

बस एक चीज़ नहीं देता मैं मुफ्त,
ये आँखें मेरी...
ये बातें करती हैं बिन शब्द बिन बोल,
ये बस उनके लिए हैं 
जिन्हें ज्ञात हो इनका मोल...

7 comments:

Viraj said...

je!! bhai ek mazzewaali chaay milegi? gali maarke!

vidu said...

chill appu chill!

Megha S said...

Poetry really helps you talk, AP. Enjoyed reading this.

SUBODH said...

Welcome back & keep on writing. You write well and I always enjoy your writings.Lv.
--- Subodh

hardik said...

Appu..every time you write.. have same reaction awesome ...you are brilliant dude ..your play with words is mesmerizing...

AppuApe said...

*Takes a bow*

Thank you everyone!!
@Viraj - gali maarke?? Didnt get that?
@Vidu - oye am chill only yaar
@Megha - Strange how u commented on this one!! smells fishy!!
@Pa - Danke danke!Lotsa Love!
@Hardik - Thanks a ton mate glad u read regularly!!
@Radhika - it is strange how ur comment never showed up on the blog... i saw it in the mail though!! Danke!!

Viraj said...

chaaye mein be...malai nahi...gaali maarke...spirit samjhobe comment mein.