November 9, 2010

यादगार

Ever so often there comes a person in your life that inspires you to talk, write, speak, communicate in a very special way. You may call that person a muse or an inspiration or just someone supernormally close to your heart. They trigger of a string of words and emotions like no other...

Now the person in concern is a very dear friend (no cliches here nor the mush story) and as a prelude to what follows...

मुकम्मल है हर शेर अपने आप में,
इस ग़ज़ल का जिल्द-साज़ तो बस मेरा यार है.


अनकही अधूरी ये बातें
ये दिलासा करती हैं,
एक और मंसूब-ए-मुलाक़ात तो होगी...

मुकम्मल है जो ये मंसूब
मुलाकातों का सिलसिलेवार
तो हलक तक आई जान भी एक ज़माना तो और जी लेगी...

अगर मासूमियत में चंद शेर रह जाएँ अनसमझे...
तो खैर करो की मुलाकातों में फिर ये बात छिड़ेगी...

दिल की बात जुबां पे जो आई
तो ताज्जुब है किया...
ना जाने अगर दिल दिल से बात कर लेते
तो क्या मंज़र होता...